Tuesday 13 February 2018

इंकलाब का शायर या मुहब्बत का ? ------ कौशल किशोर / तैमूर रहमान

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आज भारतीय उप - महाद्वीप के इंकलाबी शायर फैज़ अहमद फैज़ का जन्मदिन है। उन्हें याद करते हुए आज से करीब 33 साल पहले लिखा आलेख प्रस्तुत है। यह लेख फैज और बेदी की स्मृति में फरवरी 1985 में बाराबंकी में आयोजित समारोहमें विषय प्रवर्तन के रूप में पढ़ा गया था। उस समारोह में कैफी आजमी, वामिक जौनपुरी, शौकत आजमी, होश जौनपुरी जैसे शायर व कलाकार मौजूद थे।

इंकलाब का शायर या मुहब्बत का ?  : 

फ़ैज़ अहमद फै़ज़ (13 फरवरी 1911 - 20 नवम्बर 1984) के निधन से भारतीय उपमहाद्वीप ने एक ऐसे शायर को खो दिया जिसने शोषक शासक वर्ग की अंधकारमय संस्कृति के खिलाफ जन संस्कृति का झण्डा बुलन्द किया था। वे़ इस उपमहाद्वीप के ऐसे शायर रहे जो भाषा व देश की दीवारों को तोड़ते हुए अपनी शायरी से लोगों के दिलों में जगह बनाई। नई पीढ़ी का शायद ही कोई कवि-लेखक होगा जिसने फ़ैज़ से प्रेरणा न ग्रहण की हो। आज जहां भी जनता के संघर्ष चल रहे हैं, फ़ैज़ वहाँ मौजूद हैं - अपनी शायरी के द्वारा, नज़्मों व तरानें के द्वारा जनता की जबान पर। अपनी शायरी से उन्होंने हमारे अन्दर इंकलाब का अहसास पैदा किया तो वहीं मुहब्बत के चिराग भी रोशन किये। दुनिया फ़ैज़ को इंकलाब के शायर के रूप में जानती है लेकिन वे अपने को मुहब्बत का शायर कहते थे। इंकलाब और मुहब्बत का ऐसा मेल विरले ही कवियों में मिलता है। यही कारण है कि फ़ैज़ जैसा शायर मर कर भी नही मरता। वह हमारे दिलों में धड़कता है। वह उठे हुए हाथों और बढ़ते कदमों के साथ चलता है। वह हजार हजार चेहरों पर नई उम्मीद व नये विश्वास के साथ खिलता है और लोगों के खून में नये जोश की तरह जोर मारता है।

फ़ैज़ की सबसे बड़ी खूबी है - मानव-जीवन और जनता के संघर्षों से उनका गहरा लगाव। उनकी कविता इन्हीं संघर्षों से अपनी ऊर्जा, अपनी ताकत ग्रहण करती है। जाड़ों की सर्द रातों में सड़कों पर ठिठुरते हुए मजदूरों, भैसों की जगह ठेला खींचते हुए आदमियों, कूड़े की ढेर से निकाल कर अन्न खाते भूखों अर्थात शोषित-उत्पीडि़त जनता की आह, कराह, चीख व दर्द उनकी कविता में ऐसी आवाज बनकर आती है जो साहित्यिक, राजनीतिक, सामाजिक दुनिया में असर डालती है। वह इतनी गहराई से आती है कि पत्थर पर खुदे शब्दों की तरह लोगों के दिलों पर अंकित हो जाती है। यह आवाज जहां शोषितों-उत्पीडि़तों को आंदोलित करती है, वहीं इस आवाज से शोषक-उत्पीड़क-तानाशाह थर्रा उठते हैं।

फ़ैज़ उर्दू कविता की उस परंपरा के कवि हैं जो मीर, गालिब, इकबाल, नज़ीर, चकबस्त, ज़ोश, फि़राक, मखदूम से होती हुई आगे बढ़ी है। यह परंपरा है, आवामी शायरी की परंपरा। उर्दू की वह शायरी जो माशूकों के लब व रुखसार ;चेहराद्ध, हिज्र व विसाल ;ज़ुदाई-मिलनद्ध, दरबार नवाजी, खुशामद और केवल कलात्मक कलाबाजियों तक सीमित रही है, इनसे अलग यह परंपरा आदमी और उसकी हालत, अवाम और उसकी जिन्दगी से रू ब रू होकर आगे बढ़ी है। फ़ैज़ इस परंपरा से यकायक नहीं जुड़ गये। उन्होंने अपनी शुरुआत रूमानी अन्दाज में की थी तथा ‘मुहब्बत के शायर’ के रूप में अपनी इमेज बनाई थी। उन दिनों वे लिखते हैं:
‘रात यूं दिल में तिरी खोई हुई याद आई
जैसे वीरानों में चुपके से बहार आ जाए
जैसे शहराओं में हौले से चले वादे-नसीम
जैसे बीमार को बेवजह करार आ जाए

1930 के बाद वाले दशक के दौरान फैली भुखमरी, किसानों-मजदूरों के आंदोलन, गुलामी के विरुद्ध आजादी की तीव्र इच्छा आदि चीजों ने हिंदुस्तान को झकझोर रखा था। इनका नौजवान फ़ैज़ पर गहरा असर पड़ा। इन चीजों ने उनकी रुमानी सोच को नए नजरिये से लैस कर दिया। नजरिये में आया हुआ बदलाव शायरी में कुछ यूँ ढ़लता है:
‘पीप बहती हुई गलते हुए नासूरों से 
लौट आती है इधर को भी नजर क्या कीजे 
अब भी दिलकश है तेरा हुस्न मगर क्या कीजे 
और भी गम है जमाने में मुहब्बत के सिवा 
मुझसे पहली सी मुहब्बत मेरी महबूब न मांग’

इस दौर में फ़ैज़ यह भी कहते हैं - ‘अब मैं दिल बेचता हूं और जान खरीदता हूं’। फ़ैज की शायरी में आया यह बदलाव ‘नक्शे फरियादी’ के दूसरे भाग में साफ दिखता है। हालत का बयान कुछ इस कदर होता है:

‘जिस्म पर क़ैद है, जज़्बात पर जंजीरें हैं 
फिक्र महबूस ;बन्दीद्ध है, गुफ्तार पे ता’जीरे ;प्रतिबंधद्ध हैं’

साथ ही यह विश्वास भी झलकता है - ये स्थितियां बदलेंगी, ये हालात बदलेंगे। शायर कहता है:
‘चन्द रोज और मिरी जान ! फकत चंद ही रोज
जुल्म की छांव में दम लेने पे मजबूर हैं हम 
और कुछ देर सितम सह लें, तड़प लें, रो लें
अपने अजदाद ;पूर्वजद्ध की मीरास ;धरोहरद्ध है माजूर हैं हम 
...........लेकिन अब जुल्म की मी’याद के दिन थोड़े हैं
इक जरा सब्र, कि फरियाद के दिन थोड़े हैं।’

फ़ैज़ का यह विश्वास समय के साथ और मजबूत होता गया। कविता का आयाम व्यापक होता गया। कविता आगे बढ़ती रही। यह जनजीवन और उसके संघर्ष के और करीब आती गई। इस दौरान न सिर्फ फ़ैज़ की कविता के कथ्य में बदलाव आया, बल्कि उनकी भाषा भी बदलती गयी। जहां पहले उनकी कविता पर अरबी और फारसी का प्रभाव नजर आता था, वहीं बाद में उनकी कविता जन मानस की भाषा, अपनी जमीन की भाषा के करीब पहंुचती गई है। ऐसे बहुत कम रचनाकार हुए हैं, जिनमें कथ्य और उसकी कलात्मकता के बीच ऐसा सुन्दर संतुलन दिखाई पड़ता है। फ़ैज़ की यह चीज तमाम कवियों-लेखकों के लिए अनुकरणीय है, क्योंकि इस चीज की कमी जहां एक तरफ नारेबाजी का कारण बनती है, वहीं कलावाद का खतरा भी उत्पन्न करती हैं।
फ़ैज़ की खासियत उनकी निर्भीकता, जागरुकता और राजनीतिक सजगता है। फ़ैज़ ने बताया कि एक कवि-लेखक को राजनीतिक रूप से सजग होना चाहिए तथा हरेक स्थिति का सामना करने के लिए उसे तैयार रहना चाहिए। अपनी निर्भीकता की वजह ही उन्हें पाकिस्तान के फौजी शासकों का निशाना बनना पड़ा। दो बार उन्हें गिरफ्तार किया गया। जेलों में रखा गया। रावलपिंडी षडयंत्र केस में फँसाया गया। 1950 के बाद चार बरस उन्होंने जेल में गुजारे। शासकों का यह उत्पीड़न उन्हें तोड़ नहीं सका, बल्कि इस उत्पीड़न ने उनकी चेतना, उनके अहसास तथा उनके अनुभव को और गहरा किया। फ़ैज़ ने महसूस किया कि जो व्यवस्था जनता को लूटती-खसोटती है, उस पर दमन-उत्पीड़न ढ़ाती है, वही व्यवस्था यथास्थिति को बरकरार रखने के लिए दमन-हत्या का सहारा लेती है, उन मूल्यों, विचारों तथा संस्कृति को प्रचारित-प्रसारित करती है जो उसकी सत्ता को बनाए रखने के लिए मददगार हो। इसलिए जरूरत इस बात की है कि सत्ता संस्कृति के खिलाफ, कला व साहित्य के क्षेत्र में बदलाव के विचारों व संस्कृति को आगे बढ़ाया जाय। यह काम फैज की शायरी करती है। वह एक देश, एक समय, एक स्थान की सीमा का अतिक्रमण करती है और न सिर्फ भारतीय उपमहाद्वीप की जनता की आवाज बन जाती है बल्कि अपने भीतर तीसरी दुनिया के उत्पीडि़त देशों व शोषित जनता के संघर्षों को समो लेती है।
फ़ैज़ अपनी शायरी के द्वारा एक ऐसे समाज का सपना देखते हैं, जिसमें न कोई अमीर हो न गरीब, न शोषक हो न शोषित, बल्कि सभी बराबर हों, सबसे बढ़कर वे इन्सान हों। उनके बीच जाति, धर्म, संप्रदाय, देश का बंधन न हो। इन सबकी एक ही भाषा हो, वह भाषा हो प्रेम की, मोहब्बत की। इस तरह फ़ैज़ समाजवादी विचारधारा व सर्वहारा अन्तर्राष्ट्रीयतावाद के पक्षधर कवि के रूप में हमारे सामने आते हैं। वे कहते हैं:
हम मेहनतकश जग वालों से जब अपना हिस्सा मागेंगे
इक खेत नही, इक देश नहीं, सारी दुनिया मागेंगे 

और भी:

जब सफ सीधा हो जाएगा, जब सब झगड़े मिट जयेंगे
तब हर देश के झण्डे पर, इक लाल सितारा मागेंगे

फ़ैज़ मानते हैं कि दुनिया में झगड़ों व फसाद की जड़ साम्राज्यवाद-पूंजीवाद है जो अपने निहित हितों के लिए सारी दुनिया और समाज को बांट रखा है। इसीलिए फ़ैज़ उन लोगों को ललकारते हैं जिन्हें साम्राज्यवादी-पूंजीवादी व्यवस्था ने खाक कर दिया है:

ए खाकनशीनों उठ बैठो, वो वक्त करीब आ पहुंचा है
जब तख्त गिराए जायेंगे, जब ताज उछाले जायेंगे।

वे आगे कहते हैं:

ए जुल्म के मातो लब खोलो, चुप रहने वालों चुप कब तक
कुछ हश्र तो इनसे उट्ठेगा, कुछ दूर तो नाले जायेंगे। 

फ़ैज़ की कविताओं पर बात करते समय उनके उस पक्ष पर भी, जिसमें उदासी व धीमापन है, विचार करना प्रासंगिक होगा। यह उदासी व धीमापन फ़ैज़ की उन रचनाओं में उभरता है जो उन्होंने जेल की चहारदीवारी के अन्दर लिखी थीं। एक कवि जो घुटन भरे माहौल में जेल की सींकचों के भीतर कैद है, उदास हो सकता है। यह मानवीय गुण है। सवाल है कि क्या कवि उदास होकर निष्क्रिय हो जाता है ? क्या धीमा होकर समझौता परस्त हो जाता है ? लेकिन फ़ैज़ जैसा कवि हमेशा जन शक्ति के जागरण के विश्वास के साथ अपनी उदासी से आत्म संघर्ष करता है और यह आत्म संघर्ष फ़ैज़ की कविताओं में भी दिखाई देता है। फ़ैज़ उन चीजों से, जो मानव को कमजोर करती हैं, संघर्ष करते हुए जिस तरह सामने आते है, वह उनकी महानता का परिचायक है। वे कहते हैं -
‘हम परवरिशे-लौहो कलम करते रहेंगे
जो दिल पे गुजरती है रक़म करते रहेंगे।’

या और भी:-
‘मता-ए-लौह-औ कलम छिन गई तो क्या गम है
कि खून-ए-दिल में डुबो ली हैं उँगलियाँ मैंने
जबाँ पे मुहर लगी है तो क्या रख दी हैं
हर एक हल्का-ए-जंजीर में जुबाँ मैंने’

इन पंक्तियों में एक कवि के रचना कर्म की सोद्देश्यता झलकती है।
इस तरह फ़ैज़ की संपूर्ण रचना या़त्रा पर गौर करें तो पाते हैं कि उनकी यह यात्रा सोद्देश्य रचना कर्म का बेहतरीन उदाहरण है। मानव जीवन तथा जन संघर्षों से भावनात्मक लगाव तथा गहरा जुड़ाव साथ ही इन्हें अभिव्यक्त करने की जबरदस्त कलात्मक क्षमता - यही चीज फ़ैज़ को महान बनाती है। फ़ैज़ अपनी रचना-यात्रा के द्वारा इस बात को सामने लाते हैं कि कला, साहित्य व संस्कृति का मुख्य श्रोत जनता का जीवन और संघर्ष है। इस जीवन का वैविध्य, इसकी महान सम्पदा ही कला, साहित्य व संस्कृति का आधार है, उसका उद्गम स्थल।
फ़ैज़ का निधन एक ऐसे समय में हुआ है, जब उनकी सबसे ज्यादा जरूरत थी। आज इस महाद्वीप में जनता का संघर्ष जैसे-जैसे तेज हो रहा है, वैसे-वैसे इन संघर्षों से अनुप्राणित एकताबद्ध जन सांस्कृतिक आंदोलन भी उठ खड़ा हो रहा है। फ़ैज़्ा इस आंदोलन की अग्रणी कतार में शामिल रहे हैं, इसलिए शासक वर्ग के हमले का निशाना भी बने। आज हिन्दुस्तान का शासक वर्ग उस जमीन को ही नष्ट-भ्रष्ट कर देने में लगा है जिस पर सांस्कृतिक व कौमी एकता की बुनियाद खड़ी है। वह भाषा विवाद, हिन्दी-उर्दू विवाद, सांम्प्रदायिक उन्माद को फैलाकर ब्रिटिश साम्राज्यवादियों से विरासत में मिली ‘फूट डालो, राज करो’ की नीति का अनुसरण कर रहा है। उन घातक मूल्यों को प्रचारित-प्रसारित कर रहा है, जिनके खिलाफ फ़ैज़्ा ने सारी जिन्दगी संघर्ष किया। आज उर्दू विरोधी माहौल तैयार किया जा रहा है। उसे न सिर्फ एक संप्रदाय विशेष के साथ जोड़कर देखा जा रहा है बल्कि उसे देश विभाजन की भाषा बताया जा रहा है। सरकार की नीतियों का ही नतीजा है कि उर्दू आज जन सामान्य से दूर होती गई है। दूसरी तरफ हिन्दुत्व को स्थापित करने का प्रयास हो रहा है। हम ऐसे में फ़ैज़ की याद को तभी जीवित रख सकते हैं जब हिन्दुत्व की इस साजिश के खिलाफ अपने संघर्ष को केन्द्रित करें और एकता की उस जमीन को पुख्ता करें जिस पर हमारी कौमी जिन्दगी का सारा दारोमदार है। हमारा दायित्व है कि भेद पैदा करने वाले कारणों के विरुद्ध संघर्ष करते हुए उन तत्वों को सामने लाया जाय जिनसे एकता की जमीन मजबूत होती है क्योंकि इस जमीन के पुख्ता होने पर ही इन्सानी हक और जनता की रोजी, रोटी व जनवाद की लड़ाई आगे बढ़ सकती है। फ़ैज़ ताउम्र इसी एकता, इंसानी हक और बेहतर व सुन्दर समाज के लिए संघर्ष करते रहे।

मैने शुरू में कहा कि फ़ैज़ ने ‘मुहब्बत के शायर’ के रूप में अपनी पहचान बनाई थी। इस नजरिये से हम उनकी पूरी कविता यात्रा पर गौर करें तो पायेंगे कि फ़ैज़ का यह रूप अर्थात मुहब्बत के एक शायर का रूप समय के साथ निखरता गया है तथा उनके इस रूप में और व्यापकता व गहराई आती गई है। शुरुआती दौर में जहां उनका अन्दाज रूमानी था, बाद में समय के साथ उनका नजरिया वैज्ञानिक होता गया है। जहाँ पहले शायर हुस्न-ओ-इश्क की मदहोशियों में डूबता है, वहीं बाद में सामाजिक राजनीतिक बदलाव की आकांक्षा से भरी उस दरिया में डूबता है, जिस दरिया के झूम उठने से बदलाव का सैलाब फूट पड़ता है। जहाँ पहले माशूक के लिए चाहत है, समय के साथ यह चाहत शोषित पीडि़त इन्सान के असीम प्यार में बदल जाती है। इसी अथाह प्यार का कारण है कि दुनिया में जहां कहीं दमन-उत्पीड़न की घटनाएं घटती हैं, फ़ैज़ इनसे अप्रभावित नहीं रह पाते हैं। वे अपनी कविता से वहाँ तुरन्त पहुँचते हैं। जब ईरान में छात्रों को मौत के अंधेरे कुएँ में धकेला गया, जब साम्राज्यवादियों द्वारा फिलस्तीनियों की आजादी पर प्रहार किया गया, जब बेरूत में भयानक नर संहार हुआ - फै़ज़ ने इनका डटकर विरोध किया तथा इन्हें केन्द्रित कर कविताएँ लिखीं। इनकी कविताओं में उनके प्रेम का उमड़ता हुआ जज़्बा तथा उनकी घृणा का विस्फोट देखते ही बनता है। जनता के इसी अथाह प्यार के कारण ही फ़ैज़ अपने को ‘मोहब्बत का शायर’ कहते थे, जब कि सारी दुनिया उन्हें इंकलाब के शायर के रूप में जानती है। दरअसल, फ़ैज़ के मोहब्बत के दायरे में सारी दुनिया समा जाती है। उनका इंकलाब मुहब्बत से अलग नहीं, बल्कि उसी की जमीन पर खड़ा है। उनकी कविता में मुहब्बत नये अर्थ, नये संदर्भ में सामने आती है जिसमें व्यापकता व गहराई है।
(फरवरी 1985)

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 संकलन-विजय माथुर, फौर्मैटिंग-यशवन्त यश

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